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हे गंगा माँ, विराग दो! – Ganga Stuti Hindi

हे गंगा माँ, विराग दो! - Ganga Stuti poem in Hindi

 

गंगा,
निर्मल, अविरल, निश्छल, शीतल, उज्जवल
स्वर्ग-जलधि, पाप-संहारिणी,
करूँ मैं यदि सर्वस्व-समर्पण
करेगी तू मेरा पालन-पोषण?
हे माँ,
विराग दो!

अब बंधनो से निकल जाने दे।
कितने ही हस्तिनापुर बन गए हैं
मन की दुर्गम खोहों में,
स्वार्थ और मोह की भावना जकड़े रखती है
मेरे स्वछन्द विचारों को –
प्रेम का मार्ग दिखा
अब मुझे स्वयं से मिला
करता हूँ मैं तेरे चरणों में नमन;
हे माँ,
विराग दो!

मानव मन, मानव तन,
सोचा मैंने बस यही है जीवन।
महकते केश और प्रेयसी के नयन,
चंचल…नवकेतन।
चिर-मोह से मुझे जगा –
त्यजता हूँ मैं अपने स्वार्थ-स्वप्न
प्राप्त करने को नवचेतन।
हे गंगा माँ,
विराग दो!

 

a poem in Hindi by Alok Mishra

Alok Mishra

First and foremost a poet, Alok Mishra is an author next. Apart from these credentials, he is founder & Editor-in-Chief of Ashvamegh, an international literary magazine and also the founder of BookBoys PR, a company which helps writers brand themselves and promote their books. On this blog, Alok mostly writes about literary topics which are helpful for literature students and their teachers. He also shares his poems; personal thoughts and book reviews.

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