थोड़ी तुम हो, थोड़ा मैं हूँ और थोड़ी ज़िन्दगी है। आह! कौन जान सका है…
Sunday Shayaris – episode 2
खुद को भिगोयें भी कितना अल्फ़ाज़ों की बरसात में?
पुरे बादलों के समंदर में बस तुम्हारी ही तो खुशबु है!
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तुम्हें और याद करूँ तो शायद मेरी जान चली जाये,
पर भुलाके तुम्हें एक पल जी भी तो नहीं सकता!
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वजूद तलाशता हूँ अपना हर दिन,
अपनों के बीच भी जैसे मैं पराया हूँ;
क्या मैं हूँ भी या नहीं हूँ इस जिस्म में?
या तुम से बिछड़ के तुम्हें ढूंढता तुम्हारा ही साया हूँ?
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हर गली और रास्ते जहाँ तुम्हारे साथ चला था मैं
अब कहीं पहुँचते ही नहीं हैं वो!
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कहीं तुम भी तो होगी मेरी यादों की रौशनी में
बस यही सोचके अपनी ज़िन्दगी को रोशन कर लेता हूँ हर रोज!
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सुनता था इंसान नसीब खुद बनाता है,
कोशिश की भी पर हार गया,
मगर हार नहीं मानी है!
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by alok mishra
(feel free to use these words but do give credit & web address if you are gracious enough)
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