अब जाके टुटा मेरा सपना
और मिले आमने-सामने
सारे
जिन्हें मैंने माना था
कभी पराया और अपना।
राह बहुत उज्जवल थी
चला था जब मैं
देख मंजिल को सामने
साहसी क़दमों के साथ
बस
कुछ पग चलके
सफलता की शर्माती आलिंगन में
खुद को ढालने।
सपना टुटा
राह भी छूटा
पर,
हाँ पर मैं
अभी भी नहीं हूँ टुटा
राह नयी बनाऊंगा
नए अपनों के सामने
फिर से खुद को पाउँगा
क्यूंकि देख पाता हूँ मंजिल को
अब भी थोड़ी दूर स्वयं से
वैसे ही मुस्काते
जैसे मेरी पुरानी दुनिया से
सहसा ही दिख जाती थी
वही मंजिल
बस राह ही तो नयी है
कुछ लोग
नहीं होंगे;
जो नहीं थे
वो होंगे
पर मेरा अस्तित्व
वही होगा
जो कल था
जो कल रहेगा
अडिग हूँ मैं
अंधकार में उज्जवल अलोक हूँ मैं!
First and foremost a poet, Alok Mishra is an author next. Apart from these credentials, he is founder & Editor-in-Chief of Ashvamegh, an international literary magazine and also the founder of BookBoys PR, a company which helps writers brand themselves and promote their books. On this blog, Alok mostly writes about literary topics which are helpful for literature students and their teachers. He also shares his poems; personal thoughts and book reviews.
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Unknown paths, uncertain thoughts and unseen faces add more colour to life, wisdom and traces…
What a poem! Aur hindi me hai to aur jaldi jur pa rahi hun main is kavita se
Very good poem Alok … It shows a mirror to everyone who had hard times in his or her life. We must face it.
bahut sundar kavita!
ham shayad hi badal pate hain chah ke bhi
han duniya hi bas badal si jati hai!
अडिग हूँ मैं
अंधकार में उज्जवल अलोक हूँ मैं!
wah! Kya bat kahi hai! Upma bhi di to kaisi! Ek panth aur do kaj ka ujjwal sakshya alok ji! i am truly impressed