आवेग-प्रफुल्लित, आनन्दित, असिम और अथाह, अनंत, अनवरत, आह्लादित सागर की उठती-गिरती लहरें यूँ ही…
प्रेम बस पाना ही तो नहीं! कविता
अब कौन कहाँ है?
किसे देखूं? प्रश्न किससे करूँ?
जख्म हरा है
भर जाये शायद, आज
कल, महीनों या वर्षों में।
पर कौन होगा अब
सम्हालने मेरी बिखरती उम्मीदों को?
कौन समझेगा
मेरे सपनों को?
याद है मुझे
(तुम्हें भी तो याद होगा ही)
कैसे अश्रुधार में, डबडबाती आँखों से
देखा था हमने एक-दूसरे को
जब हाथ छुड़ाए हमने
परिस्थितियों से हारके।
सहज
सरल
सरस
बस समझ गए हम दोनों
केवल पाना ही प्रेम तो नहीं
हाँ मान लिया
माना प्रेम-पथ पे कुछ मजबूरियां, कुछ बाधा हुई;
मैं कृष्ण तो हो न सका पर तुम मेरी राधा हुई!
बोझिल ऑंखें और भारी मन
व्यथा से तो ग्रसित हैं, मानता हूँ;
पर,
आती-जाती सांसों में तुम्हारी खुशबु
और मेरी आत्मा पे अंकित
तुम्हारी स्पर्शों के चिन्ह
और
ह्रदय में तुम्हारी स्मृति
मार्ग ही तो बदले हैं
प्रेम तो वही है –
सदा, निरंतर, अनंत काल तक –
तुम में भी और मुझ में भी!
प्रेम को समर्पित
Majburiyan jhalak jati hain shabdon se
Very good poem on love Alok. If this is true, please take care
वास्तविकता के पटल पर रचित ये कविता अनेको सवाल पीछे छोड़ जाती है। प्रेम तो अनुराग की वो अनुभूति है जो व्यग्र मन को हमेशा शांति की अनुभूति प्रदान करती है। किसी को पा लेना ये तो प्रेम की परिभासा नही हो सकती।
काफी अच्छी कविता है जो जीवन के सुनहरे लम्हों के हर आयाम को स्पर्श करती है।
Bahut achhi kavita hai! Aur prem ke to yahi mayne hi hain
Bas ham kuchh kar nahin sakte!