प्रेम, तुम, मैं और हम…
मेरे स्वप्नों को वसंत-स्वप्न के बाहर प्रेम-सत्य की धरा पर, कुछ ऐसे तुमने उतारा है, प्रिये, मानो जीवंत हो गए हों पुनः वो सारे पुष्प जो मुरझाये से थे रेतीले सागर के गहराई में, पीड़ित,वंचित और उपेक्षित से। छूकर प्यार…
मेरे स्वप्नों को वसंत-स्वप्न के बाहर प्रेम-सत्य की धरा पर, कुछ ऐसे तुमने उतारा है, प्रिये, मानो जीवंत हो गए हों पुनः वो सारे पुष्प जो मुरझाये से थे रेतीले सागर के गहराई में, पीड़ित,वंचित और उपेक्षित से। छूकर प्यार…
And it begins once again like a usual pain which puts my heart on the altar of a calendar change every last day of a year. Whom are we fooling?