थोड़ी तुम हो, थोड़ा मैं हूँ
और थोड़ी ज़िन्दगी है।
आह! कौन जान सका है इसे?
अधूरा मैं हूँ, अधूरी तुम हो
और अधूरी ज़िन्दगी है!
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शायद उस रूह के रहनुमाओं को इस आत्मा से गुरेज़ था,
वर्ना कहाँ ज़िन्दगी को प्रसन्न्ताओं से परहेज था!
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अब तो नींद से जाग ए ज़िन्दगी
कब तक गिरे दीवारों में कमरा तलाशेगा तू?
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कुछ तो बात थी हमारे टूटे इश्क़ में
की शबनम जुदाई के आज भी छलकते हैं!
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तमन्ना साथ जीने की शायद कुछ ज्यादा ही थी
की नसीब ने इम्तिहान में कुर्बानी मुहब्बत की मांग ली।
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जुदा होने की बेबसी शायद प्यार से ज्यादा न थी
पर अच्छाई का लिबास हम दोनों को जुदा कर गया।
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पर मुहब्बत भी कुछ ऐसे मिली हमारी
थोड़ा चमत्कार ईश्वर और थोड़ी रहमत खुदा कर गया!
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I will be back with more next Sunday.
alok mishra