Alok Mishra

प्रेम बस पाना ही तो नहीं! कविता

prem pana to nahin kavita poem

 

अब कौन कहाँ है?
किसे देखूं? प्रश्न किससे करूँ?
जख्म हरा है
भर जाये शायद, आज
कल, महीनों या वर्षों में।

पर कौन होगा अब
सम्हालने मेरी बिखरती उम्मीदों को?
कौन समझेगा
मेरे सपनों को?

याद है मुझे
(तुम्हें भी तो याद होगा ही)
कैसे अश्रुधार में, डबडबाती आँखों से
देखा था हमने एक-दूसरे को
जब हाथ छुड़ाए हमने
परिस्थितियों से हारके।

सहज
सरल
सरस
बस समझ गए हम दोनों

केवल पाना ही प्रेम तो नहीं

हाँ मान लिया
माना प्रेम-पथ पे कुछ मजबूरियां, कुछ बाधा हुई;
मैं कृष्ण तो हो न सका पर तुम मेरी राधा हुई!

बोझिल ऑंखें और भारी मन
व्यथा से तो ग्रसित हैं, मानता हूँ;

पर,
आती-जाती सांसों में तुम्हारी खुशबु
और मेरी आत्मा पे अंकित
तुम्हारी स्पर्शों के चिन्ह
और
ह्रदय में तुम्हारी स्मृति

मार्ग ही तो बदले हैं
प्रेम तो वही है –
सदा, निरंतर, अनंत काल तक –
तुम में भी और मुझ में भी!

 

प्रेम को समर्पित

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