गंगा,
निर्मल, अविरल, निश्छल, शीतल, उज्जवल
स्वर्ग-जलधि, पाप-संहारिणी,
करूँ मैं यदि सर्वस्व-समर्पण
करेगी तू मेरा पालन-पोषण?
हे माँ,
विराग दो!
अब बंधनो से निकल जाने दे।
कितने ही हस्तिनापुर बन गए हैं
मन की दुर्गम खोहों में,
स्वार्थ और मोह की भावना जकड़े रखती है
मेरे स्वछन्द विचारों को –
प्रेम का मार्ग दिखा
अब मुझे स्वयं से मिला
करता हूँ मैं तेरे चरणों में नमन;
हे माँ,
विराग दो!
मानव मन, मानव तन,
सोचा मैंने बस यही है जीवन।
महकते केश और प्रेयसी के नयन,
चंचल…नवकेतन।
चिर-मोह से मुझे जगा –
त्यजता हूँ मैं अपने स्वार्थ-स्वप्न
प्राप्त करने को नवचेतन।
हे गंगा माँ,
विराग दो!
a poem in Hindi by Alok Mishra