देखा तुम्हें मैंने, फिरसे…
फिरसे देखा तुम्हें आज मैंने
जब आके तुम सुबह-सुबह मेरे पास बैठी
और भींगे बालों से टपकती
वो दो-चार बूंदें छू गयी फिरसे
शरीर के अंदर छुपी
मेरी आत्मा को।
..
देखा मैंने फिर
आँखों में तुम्हारी
और कोशिश की फिरसे
लगातार असफलताओं के सिलसिले को तोड़ देने की –
गहराईयों में तुम्हारे चक्षुओं की
फिरसे डूब गया मैं
पर जान न सका सीमाओं को;
क्या होती है कोई अनुराग की सीमा?
..
सूर्यास्त की लालिमा
और गुलाबी गुलाब के पुष्पित रंगों के बीच
कहीं ठहरते होठों को तुम्हारे
फिर देखा मैंने विचलित नज़रों से
..
और सहसा ही पूछ बैठा मैं तुमसे –
क्यों कभी-कभी बस बिना छुए ही छू लेना चाहता है
मन
तुम्हारे तन को भी?
..
मौन थी तुम
पर एक सुरीली ध्वनि थी
एक संगीत सा था तुम्हारे मौन में भी
उद्वेलित कर रखा था जिसने
मेरे
और शायद तुम्हारे भी हृदय को
..
तुमने अपने हाथों को
मेरे हाथों से अलग किया
और जाने को तैयार हुई
..
..
पायल की छन-छन
और तुम्हें जाते देखा मैंने …
..
पायल की छन-छन,
नींद खुली मेरी
और
तुम्हें आते देखा मैंने
…
प्रेम – अनुभूति – स्वप्न
तृष्णा – आलिंगन
तुम और मैं
बस हम!