आवेग-प्रफुल्लित, आनन्दित, असिम और अथाह, अनंत, अनवरत, आह्लादित
सागर की उठती-गिरती लहरें
यूँ ही आती-जाती रहती हैं –
सागर में और मेरे मन में भी।
नित्य-नवीन, नव-स्फुटित, निर्मल, नयन-आलोकित, निरंतर निशा-शीतल सी
तुम्हारी छवि मेरे ह्रदय-निकेतन में
यदा-कदा आती-जाती रहती हैं –
तुम ही, पर्वत में और कण में भी।
अंश-अक्षय, विस्थापित-विस्मृत, मादक-मोहित, पावन-प्रतिक्षण, निनादित-निधि,
प्रश्न और निदान, उतर-प्रतिउत्तर,
अपूर्णता-पूर्णता, संदेह-समाधान,
प्रेम और करुणा, काम-निष्काम –
मैं कहाँ हूँ?
अन्वेषक या अनुसन्धान?
तिमिर के आलोक को
निधि की आवश्यकता
सर्वदा ही रही है,
और मेरा अस्तित्व अपवाद नहीं!
अब तुम हो यहाँ
और मेरा जीवन अवसाद नहीं।
आलोक मिश्रा