बिखरे पते, सूखे वन-उपवन,
प्यासे जलाशय,
व्याकुल मानव मन…
मैं वहाँ भी था!
जाने कितने दुःशासन,
कितने महाभारत समर
और कितनी द्रौपदियों के चीर हरण,
हाँ, मैं वहाँ भी था!
खिले वसंत की अरुणाई,
मानो संसार के मुख मंडल पे
आभा हो नयी कोई खिल आयी,
मैं वहाँ भी था!
कर्मठ शरीर के कर्मकांड,
मानवी के वो क्षमा-त्याग
और वक्त-पथ पे बढ़ता जीवन,
हाँ, मैं वहां भी था…
हूँ सदा, और रहूँगा!