जैसे निर्वाण मिला हो मेरी मोक्ष की महत्वाकांक्षा को
बस एक बार जो छू लेते हैं लब तेरे
मेरे प्रफुल्लित अधरों को
जो बस अंकुरित से हुए हैं
प्रेम की बारिश में!
मेरी इच्छाओं की धुंध पे पड़ती हैं
जब धुप तुम्हारी मुहब्बत की
सिहर उठता है मेरा मन, एक आवेश में
और छूट जाता है तन
पीछे, कोसों दूर कहीं
प्रकाश, तेज, नूर…
कहीं ये मिलन तो नहीं
व्याकुल आत्मा और बेचैन रूह का?
ये कहाँ ले चला प्रेम हमें?
पता हो तुम्हें तो बता दो मुझे भी!
for M, as always!