आजाद मैं हूँ
स्वतंत्र तुम भी हो
किसी परिणाम, किसी कल से
कोई अनुराग, कोई भय भी नहीं।
पर कुछ तो है कहीं
विचारों, भावनाओं के किसी कोने में सही
जो जोड़ती है
मुझे तुम से और तुम्हें मुझ से
हर पल, हर रोज।
कुछ तो है की मेरी नजरें रूकती हैं
बस तुम्हारे चेहरे पे;
कुछ तो होगा की
तुम्हारी भी ख्यालों से दूर हो न सका मैं भी;
और कितना कुछ है
तुममे और मुझमे भी
जिसे हम देखते नहीं
या देखके भी अनजान से हैं …
कुछ नाम भी दूँ तो क्या दूँ?
क्या रिश्ता है ये मेरा और तुम्हारा
जो न दूर होने देता है
न करीब ही हम आते हैं?
पर ख्यालों में आने से एक दूसरे के
हम शायद ही खुद को रोक पाते हैं …
चलो एक दिन
(काश एक दिन!)
शायद हम कुछ बोल पाएं;
शायद हम चलें कुछ दूर
किसी रास्ते पे
बस यूँ ही;
शायद तुम देखो मेरी तरफ
और मैं देखूं तुम्हारी आँखों में
कुछ पलों के लिए
और शायद हम महसूस करें
क्या है ये सब!
मैं मैं हूँ बस
या मैं तुम भी हो
और तुम मैं भी हूँ …